पत्रकारिता इंग्लैण्ड से आई एक विधा है जिसके तीन घोषित उद्देश्य रहे हैं- सूचना देना, शिक्षित करना तथा मनोरंजन करना । भारत में पत्रकारिता का सूत्रपात 29.01.1780 को ‘हिकीज बंगाल गजट’ या ‘कैलकटा जनरल ऐडवटाइजर’ के प्रकाशन के साथ हुआ । यह अँग्रेजी समाचार-पत्र था । हिंदी का पहला समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ कलकत्ता से 30 मई 1826 को निकला था । आजादी के पहले हिंदी पत्रकारिता मिशन थी जिसका उद्देश्य सामाजिक चेतना को और अधिक जागरूक करने का था । तब देश में गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे युवाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनितिक आजादी के लिए संघर्षमयी पत्रकारिता को देखा गया । पहले के पत्रकारों को न यातनाएँ विचलित करती थीं और न धमकियाँ । आर्थिक कष्टों में भी उनकी कलम काँपती नहीं थी बल्कि दुगुनी जोश के साथ अँग्रेजों के खिलाफ आग उगलती थी । आजादी के लिए लोगों में अहिंसा का अलख जगाने वाले महात्मा गाँधी स्वयं एक अच्छे लेखक थे । तब पत्रकारिता के मायने थे देश की आजादी और आजादी के बाद देश की समस्याओं के निराकरण को लेकर अंतिम दम तक संघर्ष करना तथा कलम की धार को अंतिम दम तक तेज रखना ।

आजादी के बाद पत्रकारिता प्रोफेशन बन गई और बीसवीं शताब्दी के आखिर में वह बाज़ारवाद के जबर्दस्त प्रभाव में आ गई थी । हिंदी पत्रकारिता अपने घोषित उद्देश्यों से भटक गई । जानने वाली बात यह है कि समाचार-पत्र किसी कारखाने के उत्पादन नहीं होते हैं लेकिन पिछले एक दशक से उन्हें एक उत्पादन भर बनाए जाने की साजिश की जा रही है। समाचार-पत्रों के पन्ने रंगीन होते जा रहे हैं और उनमें विचार-शून्यता साफ झलकती है । आज समाचार पत्रों में न सिर्फ विचारों का अभाव है बल्कि उसके विपरीत उन्हें फिल्मों, लज़ीज़ व्यंजनों इत्यादि ऐसी तमाम सामग्री अनेक रूपों में परोसी जाने लगी है जो मनुष्य के जीवन में पहले बहुत अहम स्थान नहीं रखती थीं । अर्थात् समाचार-पत्रों के माध्यम से एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का निर्माण किया जा रहा है जिसका देश की 10% से भी अधिक जनता का कोई सरोकार नहीं । चूँकि ऐसी खबरों को बढ़ावा देना और प्रायोजन करने वालों की भीड़ है और साथ ही समाचार-पत्रों को भी विज्ञापन चाहिए । इसलिए पत्रकारिता को उनके सामने झुकने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है ।
मैं आज अपने लेख Journalism and social concern |Hindi| पत्रकारिता एवं सामाजिक सरोकार के जरिए अपनी बात आप तक पहुँचाने की कोशीश करूँगी । मुझे आशा है आपको मेर लेख पसंद जरूर आएगा ।
जब कभी भी पत्रकारिता और समाज की बात की जाती है तो पत्रकारिता को समाज में जागरूकता पैदा करने वाले एक साधन के रूप में देखा जाता है, जो लोगों को सही व गलत करने की दिशा में एक प्रेरक का कार्य करता नज़र आता है । जहाँ कहीं भी अन्याय, शोषण, अत्याचार, भ्रष्टाचार और छल है उसे जनहित में उजागर करना पत्रकारिता का धर्म है । हर तरफ से निराश व्यक्ति पत्रकारिता की तरफ ही आता है । पत्रकारिता ही उनकी अंधकारमय ज़िंदगी में उम्मीद की आखिरी किरण होती है । उसे पीड़ितों का सहारा बनना चाहिए। लेकिन आज पत्रकारिता अपनी जिस ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर रहा है, वह अत्यंत सीमित है।

जैसे ही हम पत्रकारिता की बात करते हैं, उसके साथ सामाजिक सरोकार अपने आप जुड़ जाता है । चाहे पत्रकारिता की भाषा कोई भी हो । हाँलाकि जब हम सामाजिक सरोकार पर जोर देते हैं तो हिंदी पत्रकारिता की भूमिका अन्य भाषा की पत्रकारिता के मुकाबले थोड़ी बढ़ जाती है । इसका कारण हिंदी भाषा के आम जनता की भाषा और देश की राष्ट्रीय भाषा होना है । हिंदी भाषा ही देश में सबसे ज्यादा समझी और बोली जाने वाली है । यह भाषा ही देश में सबसे ज्यदा फैली हुई है । जहाँ आमतौर पर अँग्रेजी और अन्य प्रांतीय भाषा एक खास क्षेत्र और खास वर्ग को प्रभावित करती हैं, वहीं हिंदी का असर व्यापक होता है । प्रसार के मामले में जब हम देश के बड़े-बड़े समाचार-पत्रों की बात करते हैं तो उनमें हिंदी भाषा के समाचार-पत्र का सबसे ऊपर होना इस तथ्य को साबित करता है । आज देश में व्याप्त गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, मूलभूत सुविधाओं की कमी इत्यादि तमाम दिक्कतों के केंद्र में पिछड़ी हुई आबादी है, जहाँ अधिकांश समझी और बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है । इसीलिए हिंदी पत्रकारिता की जिम्मेदारी समाज को लेकर बढ़ जाती है । हिंदी पत्रकारों की जिम्मेदारी होती है कि वह गरीब और पिछड़े लोगों की समस्याओं को प्रशासन के सामने पहुँचाएं तथा प्रशासन को अपने समाचार-पत्र के द्वारा मजबूर कर दें ताकि वह आम जनता की परेशानिओं को दूर करने की दिशा में कदम उठाएँ ।
पत्रकार और पत्रकारिता की एक और ज़िम्मेदारी देश में रहनेवाले सभी धर्म और समुदाय को समान नज़र से देखने का है, लेकिन अधिकांश समय पर पत्रकारिता निष्पक्षता के अपने मूल तत्त्व को बचाकर नहीं रख पाती है और एक ही पक्ष बनी नज़र आती है । यह बात लगभग सभी जानते हैं कि भारत की लगभग 70% आबादी गाँव में रहती है, जो खेती और मजदूरी पर निर्भर है। इस देश की पत्रकारिता ने किसानों की समस्याओं को बहुत कम ही मुद्दा बनाया है । यदि वह ऐसा करें तो सरकार भी इनकी समस्याओं से अधिक रू-ब-रू हो पाएगी। यहाँ हिंदी पत्रकारिता की भूमिका इसलिए ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि हिंदी भाषा गाँव से जुड़ी है । कई बार किसानों और आम लोगों के मुद्दों को लेकर अँग्रेजी पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता से ज्यादा सजग रहती है । इसी तरह दलितों और आदिवासियों से सम्बंधित मुद्दों पर भी हिंदी पत्रकारिता अपने सामाजिक सरोकारों को पूरा नहीं करती है । आज भी हमारे समाज में दलितों और आदिवासियों के साथ अछूतों वाला व्यवहार किया जाता है । आज भी हमारे समाज के कुछ लोग इनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं । इनको समाज में वह सम्मान नहीं मिलता जिसके वे हकदार हैं । भारत के ऐसे कई राज्य हैं जहाँ लोग इनका छूआ पानी तक नहीं पीते हैं । इन सब बातों पर हमारी हिंदी पत्रकारिता कभी ध्यान भी नहीं देती है । लेकिन यदि किसी अभिनेता या बिजनेसमैन की शादी हो या उसके साथ कोई घटना घट गई हो, उसकी सूचना दिन भर समाचार-पत्रों के द्वारा मिलती रहती है। सवाल यह है कि पत्रकारिता एक बहुत बड़े समाज की भावनाओं की ओर से अपनी सामाजिक दायित्वों को क्यों नहीं निभाती ? हज़ारों की कगार में आदिवासी अपने हक के लिए लड़ते हैं लेकिन उनकी माँग से जुड़ी खबरें कभी आम लोगों के सामने प्रस्तुत नहीं की जाती है ।

जब हम दलित स्त्री की बात करते हैं तो सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता का दम्भ भरने वाली पत्रकारिता कहीं दूर खड़ी नज़र आती है । हिंदी पत्रकारिता ने दलित औरतों के साथ कभी भी सहानुभूति का व्यवहार नहीं किया है । वह या तो दलित औरतों को बलात्कार पीड़िता के रूप में पेश करता है या फिर कोई डायन के रूप में । इसके विपरीत अँग्रेज़ी पत्रकारिता ज्यादा गम्भीर दिखती है । सवाल यह है कि जब पत्रकारिता दलित स्त्रियों के साथ बलात्कार की खबर पर उन्हें ‘दलित महिला’ कह कर प्रस्तुत करती है तो फिर सवर्ण समाज की महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घटना होती है तब वही पत्रकारिता उन्हें ‘सवर्ण महिला’ के साथ बलात्कार क्यों नहीं लिखती है? जहाँ सवर्ण महिलाओं के साथ यौनिक हिंसा होने पर यह पत्रकारिता कैंडल मार्च से लेकर तमाम विरोध प्रदर्शन की खबरें दिखा कर सरकार पर दबाव डालती है, वहीं दलित महिलाओं के साथ शारीरिक हिंसा होने पर जब दलित संगठन और समाज सेवी विरोध प्रदर्शन कर के उनके लिए इंसाफ माँगते हैं तो उनकी माँग वहीं तक सीमित रहकर किसी अँधेरे कुँए में खो जाती है । जब मैरीकॉम और दीपिका ऑलम्पिक में पदक जीतती हैं तो वह ‘देश की बेटी’ कही जाती हैं, लेकिन जब इन्हीं दोनों के समाज की कोई महिला शोषण का शिकार होती हैं तो वह आदिवासी और दलित कही जाती हैं । जब अत्याचार की बात आती है तब यह महिलाएँ ‘देश की बेटी’ क्यों नहीं कही जातीं?
वास्तव में बात यह है कि आधुनिकता व वैश्वीकरण के इस दौर मे पत्र-पत्रिकाओं व नामी गिरामी न्यूज चैनलों को ग्रामीण परिवेश, दलित समाज से लाभ नहीं हो पाता और सरोकार भी नहीं है । इसीलिए वे धीरे-धीरे इससे दूर भाग रहे हैं और औद्योगीकरण के इस दौर में पत्रकारिता ने भी सामाजिक सरोकारों को भुलाते हुए उद्योग का रूप ले लिया है । गम्भीर से गम्भीर मुद्दे अंदर के पृष्ठों पर लिए जाते हैं तथा कई बार तो सिरे से गायब भी रहते हैं । समाचारों के रूप में कई समस्याएँ स्थान तो पा लेती हैं लेकिन उन पर गम्भीर विमर्श के लिए पृष्ठों की कमी हो जाती है । पत्रकारिता की तटस्थता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है।
आज के इस दौर में पत्रकारिता कहाँ पर है और आम लोगों को उनकी समस्या का हल कौन देगा यह बताने वाली पत्रकारिता अपने आप से आज यह सवाल पूछ रही है कि मैं कौन हूँ ? आज देश आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी गम्भीर समस्याओं से जूझ रहा है । इससे निपटने के लिए आम लोगों को क्या करना चाहिए ? सरकार की क्या भूमिका हो सकती है ? सहित ऐसे कई मुद्दों पर पत्रकारिता मौन रूप लिए हुए है । वहीं दूसरी ओर आतंकी गतिविधियों से लेकर नक्सली क्रूरता को लाइव दिखाने में भी यह पत्रकारिता पीछे नहीं है । यहाँ तक कि आज सर्वप्रथम किसी समाचार को दिखाने की होड़ में पत्रकारिता के समक्ष आतंकी व नक्सली हमला के तुरंत बाद ही हमला करने वाले कमाण्डर व अन्य आरोपियों के फॉन व ई-मेल तक आ जाते हैं । ध्यान देने वाली बात यह है कि बार-बार व प्रत्येक दिन इन समाचारों को दिखाने व छापने से फायदा किसका होता है ? आम जनता का, पुलिस का, नक्सली व आतंकी का या फिर पत्रकारिता का ? निश्चित रूप से इसका फायदा पत्रकारिता व उन देशद्रोहियों (आतंकी व नक्सली) को होता है, जिन्हें बिना किसी कारण से बढ़ावा मिलता है क्योंकि बार-बार उन्हें दिखाने से आम लोगों और बच्चों में उनके प्रति भय पैदा होता है और ये असामाजिक तत्त्व चाहते भी यही हैं । इसलिए आज जरूरी है कि पत्रकारिता और इसे चलाने वाले लोगों को यह तय करना होगा कि पत्रकारिता ने सामाजिक सरोकारों को दूर करने में कितनी कामयाबी हासिल की है, यह उन्हें स्वयं ही देखना व समझना होगा । ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारिता ने सामाजिक सरोकारों को एकदम ही अलग कर दिया है । परंतु लगातार पत्रकारिता की भूमिका संदिग्ध-सी लगती है । कई विषयों पर जहाँ उन्हें न्याय दिलाने की आवश्यकता होती है एवं लोगों को पत्रकारिता से यह अपेक्षा होती है कि उसके द्वारा उनकी माँगों व समस्याओं पर विशेष ध्यान देते हुए समस्या का समाधान किया जाएगा । ऐसे कई मौकों पर पत्रकारिता की भूमिका से लोगों को काफी असहज-सा महसूस होता है ।

पत्रकारिता ने हमारे समाज को हर क्षेत्र में प्रभावित किया है । यदि वह समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए सत्य की राह पर है तो उस समाज और राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता है । यदि दुर्भाग्यवश पत्रकारिता ने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को नजर अंदाज करते हुए असत्य की राह पकड़ ली तो समाज व राष्ट्र का नाश निश्चित है ।
अतः पत्रकारिता को एक बार फिर से ठीक उसी तरह निष्पक्ष होना पड़ेगा जिस तरह आज़ादी के पहले जनता के साथ देखा गया । यह तभी सम्भव हो सकेगा जब पत्रकारिता स्वयं में ही एक आत्ममंथन करे और एक आंदोलन के रूप में सामाजिक सरोकार स्थापित करे ।
मैंने अपने इस लेख Journalism and social concern |Hindi| पत्रकारिता एवं सामाजिक सरोकार में मूलत: पत्रकारिता से जुड़ी तमाम बातों को स्पष्ट करने की कोशिश की है ।
आपको मेरा लेख Journalism and social concern |Hindi| पत्रकारिता एवं सामाजिक सरोकार कैसा लगा कृपया कमेंट बॉक्स में लिखकर बताएँ । इसके साथ ही आप यदि कोई सुझाव देना चाहते हैं तो वह भी दे सकते हैं ।
मेरे अन्य आलेख :