Women in advertisement |Hindi| विज्ञापन में महिला

किसी उत्पाद अथवा सेवा को बेचने अथवा प्रवर्तित करने के उद्देश्य से किया जाने वाला जनसंचार ‘विज्ञापन’ कहलाता है । ‘विज्ञापन’ शब्द को अँग्रेज़ी भाषा में Advertising कहते हैं । इस अँग्रेज़ी भाषा शब्द ‘एडवर्टाइज़िंग’ की उत्पत्ति लैटिन के ‘एडवर्टर’ शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘टू टर्न टू’ – किसी ओर मुड़ना या फिर, जैसाकि विज्ञापन करता है जिन लोगों तक संदेश पहुँचाता है उन्हें उस संदेश की ओर प्रेरित करता है । आज व्यावसायिक जगत् में विज्ञापन का अर्थ ग्राहकों को विशेष वस्तुओं एवं सेवाओं के बारे में जानकारी देकर उन वस्तुओं एवं सेवाओं की ओर मोड़ने से है । इस प्रकार यह एक ऐसी संचार प्रक्रिया है, जिसके द्वारा नए ग्राहक को जोड़ा जा सकता है और पुराने ग्राहकों को स्थायी बनाया जा सकता है । विज्ञापन माध्यम एक ऐसा साधन है जिसमें विज्ञापनकर्ता अपनी वस्तुओं एवं सेवाओं या विचारों के बारे में एक विशाल जन – समुदाय को संदेश पहुँचाते हैं ।

तो आइए हम विस्तार पूर्वक Women in advertisement |Hindi| विज्ञापन में महिला विषय को जानते हैं ।

टेलीविजन हो, रेडियो हो या फिर समाचार – पत्र । आज प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञापनों की भरमार है । तरह – तरह से विज्ञापनों में कई दावे किए जाते हैं कि उनके उत्पादों का प्रयोग करने से सारी तकलीफें दूर हो जाएंगी । किसी बच्चे के उत्पाद से लेकर औरतों, पुरूष तथा बुजुर्ग इत्यादि सभी के उत्पादों को हमारे सामने ऐसे प्रस्तुत किया जाता है जैसे वह कोई मंत्र बेच रहे हों, जिसे हम प्रयोग करें और तुरंत सब ठीक हो जाए ।

महिलाओं की भूमिका भी इससे अछूती नहीं है । किसी खास क्रीम जो सांवले रंग को गोरा कर दे या किसी बेबी फूड जो चंद दिनों में अपने बच्चों को तंदरूस्त और सेहतमंद बनाने का विज्ञापन करते हुए हर जगह दिखाई देती हैं ।

विज्ञापनों में तो यहाँ तक दावा किया जाता है कि मोबाइल खरीदकर महिला आजादी से जी सकती है। वह घंटों किसी से बात कर सकती है । ऐसे विज्ञापनों से यह प्रतीत होता है जैसे पुरूषों का तो मोबाइल से दूर – दूर तक कोई नाता नहीं है । पुरूष तो मोबाइल का प्रयोग करते ही नहीं हैं । इसके साथ ही पुरूषों की वस्तुएँ जैसे शेविंग क्रीम, रेज़र, उनके बनयान इत्यादि का भी विज्ञापन करती महिलाएँ नज़र आती हैं । लेकिन प्रश्न यह है कि जिस तरह महिलाओं को विज्ञापन के लिए प्रस्तुत किया जाता है वह कितना सही है ?

विज्ञापनों का मकसद वस्तुओं का विक्रय करना होता है । इसके लिए ग्राहक को निशाना बनाया जाता है । कभी महिलाएँ स्वयं निशाना बन जाती हैं । कभी उनके आकर्शन से प्रभावित होकर पुरूष भी किसी खास वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित होते हैं ।

पहले विज्ञापनों में पुरूषों की भूमिका अधिक थी लेकिन अब समय बदल गया है । आज महिलाओं की भूमिका हर क्षेत्र में अत्यंत तेजी से बढ़ रही है । राजनीति से लेकर शिक्षा, कम्प्यूटर तथा कॉर्पोरेट जगत् में भी महिलाएँ बढ़ – चढ़ कर आगे आ रही हैं । लेकिन क्या महिलाओं की स्थिति हमारे समाज में सुधर पाई है ? क्या मीडिया में उसके प्रस्तुतिकरण में कोई भी परिवर्तन आया है ? महिलाएँ विज्ञापन की एक महत्त्वपूर्ण अंग बन चुकी हैं । चाहे वह घरेलू वस्तुओं का प्रचार हो, चाहे पुरूषों की रोज़मर्रा की जरूरत की वस्तुओं का प्रचार । महिलाओं को हमेशा से एक अत्यंत प्रभावशाली यंत्र की तरह इस्तमाल किया जा रहा है ।

शुरुआती दौर में Women in advertisement |Hindi| विज्ञापन में महिला को एक पत्नी, बहू, बहन और माँ के रूप में ही देखा जाता था । वह एक कमजोर और पुरूषों पर आश्रित व्यक्तित्व की तरह पेश की जाती थीं । उस समय जो लोगों की सोच थी, वातावरण था, उसके अनुकूल महिलाओं का चित्रण विज्ञापनों के जरिए किया जाता था ।

जैसे – जैसे समय बदला, विज्ञापन में महिलाओं की भूमिका भी बदल गई । आज महिला बाइक, स्कूटि और कार का विज्ञापन करने लगी हैं । एक समझदार गृहणी से लेकर सर्फ, साबून, कैडबरी इत्यादि का विज्ञापन तथा कभी खुलकर नृत्य करती हुईं महिलाएँ भी विज्ञापन करने लगी हैं । आज के विज्ञापनों में महिलाओं को तरह – तरह के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है । इनमें से कई प्रस्तुतिकरण हमारे संस्कृति के अनुकूल होते हैं तो कई पाश्चात्य् संस्कृति से प्रभावित होते हैं । लेकिन इन सब से कहीं न कहीं महिलाओं के प्रस्तुतिकरण की वजह से विज्ञापन बनाने वाली कम्पनियों को अत्यंत लाभ होता है । लोग विज्ञापनों में महिलाओं के प्रस्तुतिकरण को देख तथा उनके आकर्षण से भी उत्पाद खरीदने के लिए जागरूक होते हैं । यह सब चलचित्र के माध्यम से भी सम्पन्न हो पाया है जो लोगों के विचार – धारा और दिमाग पर खास असर डालते हैं ।

आज महिलाओं को अधिक गोरा ही दर्शाया जाता है । जैसे गोरा होना ही सबकुछ हो । यदि वह गोरी नहीं हैं तो उनकी शादी में अर्चन आ रही है या नौकरी मिलने में परेशानी हो रही है । इन सब परेशानियों से मुक्ति पाने के लिए फेयरनेस क्रीम को विज्ञापन के जरिए दर्शाया जाता है । जिसमें विज्ञापन करती महिलाएँ यह दिखाती हैं कि फेयरनेस क्रीम लगाते ही उनकी दुनिया बदल जाती है । उनके पीछे सारी दुनिया भागने लगती है । इसप्रकार की सोच रखने वाले विज्ञापनकर्ता या लेखक समाज को बर्बाद कर रहे हैं । आज दुनिया कहाँ से कहाँ तक पहुँच गई है लेकिन ऐसी मानसिकता के लोग हमारे समाज में बसी कुरीतियों को और मजबूत कर रहे हैं । बात यह नहीं है कि सारी विज्ञापन कम्पनियाँ ऐसा करती हैं । कुछ समाज में फैली महिलाओं के प्रति कुरीतियों को भी दूर करने की कोशिश करते हैं । ‘तनिष्क’ जैसी बड़ी ब्रैंड की कम्पनी ने अपने विज्ञापन में महिला के पुनर्विवाह को दर्शा कर सामाजिक कुरीतियों को फिर से उजागर कर पुनर्विवाह के लिए प्रेरित किया है । कुछ विज्ञापनकर्ता महिलाओं को सशक्त रूप में प्रस्तुत करते हैं । जैसे ‘टाइटन’ ने अपने प्रचार में ‘सिंगल वर्किंग वुमन’ को दर्शाते हुए समाज में हो रहे परिवर्तन को दिखाया है ।

कुछ विज्ञापनकर्ता पारम्परिक ढंग से विज्ञापन में महिलाओं की प्रस्तुतिकरण करते हैं । जैसे ‘एरियल’, ‘घड़ी’, ‘विम – बार’ इत्यादि सर्फ – साबून के विज्ञापन में महिलाओं के घरेलू रूप पर प्रश्न चिह्न उठाया है । उन सभी विज्ञापनों में यह दिखाया जाता है कि आज महिला चाहे जितनी भी सशक्त क्यों न हो जाए लेकिन कुछ काम जैसे कपड़े या बर्तन धोने का काम उसे ही करने पड़ते हैं । प्रश्न यह है कि ऐसे विज्ञापनकर्ता पुरूषों से क्यों नहीं विम बार या डिटर्जेंट का विज्ञापन करवाते हैं ? क्या वह समाज को यह दिखाना चाहते हैं कि कपड़े या बर्तन धोने का कार्य सिर्फ महिलाओं का है ? आज पुरूषों की भाँति महिलाएँ भी बाहर काम करती हैं । यहाँ तक कि घर हो या बाहर प्रत्येक कार्यों को महिलाएँ बखूबी से करती हैं । आज पुरूष भी तत्पर हो रहे हैं महिलाओं के साथ कदम से कदम मिलाने का । तब क्यों ऐसे विज्ञापनकर्ता अपनी सोच को समाज पर थोप कर उसे बिगाड़ रहे हैं ।

नारी सशक्तिकरण पर बने ‘वो’ नामक पत्रिका के विज्ञापन में दीपिका पादुकोण काफी चर्चा में रहीं । ‘माई चॉयस’ थीम पर बने इस विज्ञापन में काफी बातें ऐसी कही गईं, जिसे हम नारीवाद के हक में नहीं कह सकते । नारीवाद समाज में महिला और पुरूष की बराबरी की बात करता है ना कि पुरूष को नीचा दिखाकर महिला को बड़ा दिखाना नारीवाद कहलाता है ।

मीडिया और समाज एक दूसरे पर आश्रित हैं । महिलाओं का विज्ञापन में प्रस्तुतिकरण हमारे समाज का आईना है, क्योंकि विज्ञापन से ही हमारा समाज सीखता है तथा लोगों में एक नई सोच पनपती है। उसी प्रकार कई बार ऐसा भी देखा गया है कि विज्ञापन समाज को एक रास्ता दिखाने योग्य मार्ग – दर्शक भी बनता है । जैसा कि ‘हिरो’ कम्पनी का विज्ञापन ‘Why should boys have all the fun’ कहीं न कहीं इस विज्ञापन के बाद कुछ प्रतिशत मध्यम वर्गीय परिवार की महिलाओं में स्कुटि को लेकर जागरूकता आई है । यूँ  कहें कि विज्ञापन ही हमारे समाज को आईना दिखाते हैं । इसलिए विज्ञापनकर्ता और विज्ञापन एजेंसी को किसी भी विज्ञापन को बनाने से पहले उसके प्रभाव के बारे में जरूर सोचना चाहिए तथा महिलाओं को एक प्रदर्शन की वस्तु नहीं बल्कि पुरूषों की तरह ही एक साधारण इन्सान के रूप में पूरे सम्मान के साथ ही विज्ञापन में प्रस्तुत करना चाहिए । इसका एक उपाय यह भी है कि विज्ञापन बनाते समय महिलाओं की भी राय लेनी चाहिए । उनके प्रस्तुतिकरण पर सहयोगी महिलाओं या आम महिलाओं से विचार – विमर्श करना आवश्यक है ।

विज्ञापन के क्षेत्र में बदलाव अत्यंत आवश्यक है । बदलाव आएगा तभी उसका सकारात्मक प्रभाव सामाजिक रूप से भी नजर आएगा । एक सबसे ज्यादा उल्लेखनीय विज्ञापन स्टार स्पोर्टस का विज्ञापन ’चेक आउट माइ गेम’ महिलाओं को घूरने वालों को करारा जवाब देती प्रतीत होती है । इसमें देश की प्रमुख महिला एथलीटों को अपना – अपना खेल खेलते दिखाया गया है । जहाँ साइना नेहवाल कहती है कि मेरी सर्विस देखो, तो मैरी कॉम कहती है कि मेरा पंच देखो । तो कोई एथलीट कहती है कि मेरा खेल देखो । यह विज्ञापन महिलाओं के प्रति हमारे समाज के स्टीरियोटाइप रवैये को एक जोरदार पंच मारता है । जाहिर है कि यह एक बड़े बदलाव की शुरुआत है । इस बदलाव से हमारी दुनिया ज्यादा दिन तक अनछुई नहीं रह सकती ।

वहीं, बॉर्नविटा के विज्ञापन में एक माँ अपने बेटे को तैरना सिखाती है और जब बेटे के पैर में चोट लगने से प्लासटर चढ़ा होता है, तो उसकी तरह उसकी माँ भी अपने पैर को बांध लेती है, लेकिन उसकी ट्रेनिंग जारी रखती है । यह बहुत ही प्यारा और संवेदनशील विज्ञापन है ।

किसी भी देश की ताकत महिलाओं की शक्ति में छिपी है । सामाजिक विकास से लेकर आर्थिक उन्नति में महिलाओं का योगदान महत्त्वपूर्ण है । एक बच्चे को जन्म देने वाली ‘माँ’ से लेकर अंतरिक्ष तक पहुँचने वाली एस्ट्रोनॉट के रूप में स्त्री शक्ति का अंदाजा लगा पाना कोई मुश्किल कार्य नहीं है । इसलिए Women in advertisement |Hindi| विज्ञापन में भी महिलाओं की स्थिति को समझने की आवश्यकता है तथा उन्हें प्रोत्साहित करने की जरूरत है । तभी समाज में फैली कुरीतियों का भी अंत होगा ।

Women in advertisement |Hindi| विज्ञापन में महिला को केवल मनोरंजन और सुंदरता का प्रतीक ही नहीं समझना चाहिए । उन्हें भी पुरुषों की ही भाँति इज्जत मिलनी चाहिए । तभी देश और समाज का विकास होगा । 

आपको मेरा लेख Women in advertisement |Hindi| विज्ञापन में महिला कैसा लगा कृपया कमेंट बॉक्स में लिखकर बताएँ । इसके साथ ही आप यदि कोई सुझाव देना चाहते हैं तो वह भी दे सकते हैं ।

Journalism and social concern |Hindi| पत्रकारिता एवं सामाजिक सरोकार

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पत्रकारिता इंग्लैण्ड से आई एक विधा है जिसके तीन घोषित उद्देश्य रहे हैं- सूचना देना, शिक्षित करना तथा मनोरंजन करना । भारत में पत्रकारिता का सूत्रपात 29.01.1780 को ‘हिकीज बंगाल गजट’ या ‘कैलकटा जनरल ऐडवटाइजर’ के प्रकाशन के साथ हुआ । यह अँग्रेजी समाचार-पत्र था । हिंदी का पहला समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तण्ड’ कलकत्ता से 30 मई 1826 को निकला था । आजादी के पहले हिंदी पत्रकारिता मिशन थी जिसका उद्देश्य सामाजिक चेतना को और अधिक जागरूक करने का था । तब देश में गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे युवाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनितिक आजादी के लिए संघर्षमयी पत्रकारिता को देखा गया । पहले के पत्रकारों को न यातनाएँ विचलित करती थीं और न धमकियाँ । आर्थिक कष्टों में भी उनकी कलम काँपती नहीं थी बल्कि दुगुनी जोश के साथ अँग्रेजों के खिलाफ आग उगलती थी । आजादी के लिए लोगों में अहिंसा का अलख जगाने वाले महात्मा गाँधी स्वयं एक अच्छे लेखक थे । तब पत्रकारिता के मायने थे देश की आजादी और आजादी के बाद देश की समस्याओं के निराकरण को लेकर अंतिम दम तक संघर्ष करना तथा कलम की धार को अंतिम दम तक तेज रखना ।

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आजादी के बाद पत्रकारिता प्रोफेशन बन गई और बीसवीं शताब्दी के आखिर में वह बाज़ारवाद के जबर्दस्त प्रभाव में आ गई थी । हिंदी पत्रकारिता अपने घोषित उद्देश्यों से भटक गई । जानने वाली बात यह है कि समाचार-पत्र किसी कारखाने के उत्पादन नहीं होते हैं लेकिन पिछले एक दशक से उन्हें एक उत्पादन भर बनाए जाने की साजिश की जा रही है। समाचार-पत्रों के पन्ने रंगीन होते जा रहे हैं और उनमें विचार-शून्यता साफ झलकती है । आज समाचार पत्रों में न सिर्फ विचारों का अभाव है बल्कि उसके विपरीत उन्हें फिल्मों, लज़ीज़ व्यंजनों इत्यादि ऐसी तमाम सामग्री अनेक रूपों में परोसी जाने लगी है जो मनुष्य के जीवन में पहले बहुत अहम स्थान नहीं रखती थीं । अर्थात् समाचार-पत्रों के माध्यम से एक ऐसी काल्पनिक दुनिया का निर्माण किया जा रहा है जिसका देश की 10% से भी अधिक जनता का कोई सरोकार नहीं । चूँकि ऐसी खबरों को बढ़ावा देना और प्रायोजन करने वालों की भीड़ है और साथ ही समाचार-पत्रों को भी विज्ञापन चाहिए । इसलिए पत्रकारिता को उनके सामने झुकने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है ।

मैं आज अपने लेख Journalism and social concern |Hindi| पत्रकारिता एवं सामाजिक सरोकार के जरिए अपनी बात आप तक पहुँचाने की कोशीश करूँगी । मुझे आशा है आपको मेर लेख पसंद जरूर आएगा ।

जब कभी भी पत्रकारिता और समाज की बात की जाती है तो पत्रकारिता को समाज में जागरूकता पैदा करने वाले एक साधन के रूप में देखा जाता है, जो लोगों को सही व गलत करने की दिशा में एक प्रेरक का कार्य करता नज़र आता है । जहाँ कहीं भी अन्याय, शोषण, अत्याचार, भ्रष्टाचार और छल है उसे जनहित में उजागर करना पत्रकारिता का धर्म है । हर तरफ से निराश व्यक्ति पत्रकारिता की तरफ ही आता है । पत्रकारिता ही उनकी अंधकारमय ज़िंदगी में उम्मीद की आखिरी किरण होती है । उसे पीड़ितों का सहारा बनना चाहिए। लेकिन आज पत्रकारिता अपनी जिस ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर रहा है, वह अत्यंत सीमित है।

जैसे ही हम पत्रकारिता की बात करते हैं, उसके साथ सामाजिक सरोकार अपने आप जुड़ जाता है । चाहे पत्रकारिता की भाषा कोई भी हो । हाँलाकि जब हम सामाजिक सरोकार पर जोर देते हैं तो हिंदी पत्रकारिता की भूमिका अन्य भाषा की पत्रकारिता के मुकाबले थोड़ी बढ़ जाती है । इसका कारण हिंदी भाषा के आम जनता की भाषा और देश की राष्ट्रीय भाषा होना है । हिंदी भाषा ही देश में सबसे ज्यादा समझी और बोली जाने वाली है । यह भाषा ही देश में सबसे ज्यदा फैली हुई है । जहाँ आमतौर पर अँग्रेजी और अन्य प्रांतीय भाषा एक खास क्षेत्र और खास वर्ग को प्रभावित करती हैं, वहीं हिंदी का असर व्यापक होता है । प्रसार के मामले में जब हम देश के बड़े-बड़े समाचार-पत्रों की बात करते हैं तो उनमें हिंदी भाषा के समाचार-पत्र का सबसे ऊपर होना इस तथ्य को साबित करता है । आज देश में व्याप्त गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, मूलभूत सुविधाओं की कमी इत्यादि तमाम दिक्कतों के केंद्र में पिछड़ी हुई आबादी है, जहाँ अधिकांश समझी और बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है । इसीलिए हिंदी पत्रकारिता की जिम्मेदारी समाज को लेकर बढ़ जाती है । हिंदी पत्रकारों की जिम्मेदारी होती है कि वह गरीब और पिछड़े लोगों की समस्याओं को प्रशासन के सामने पहुँचाएं तथा प्रशासन को अपने समाचार-पत्र के द्वारा मजबूर कर दें ताकि वह आम जनता की परेशानिओं को दूर करने की दिशा में कदम उठाएँ ।

पत्रकार और पत्रकारिता की एक और ज़िम्मेदारी देश में रहनेवाले सभी धर्म और समुदाय को समान नज़र से देखने का है, लेकिन अधिकांश समय पर पत्रकारिता निष्पक्षता के अपने मूल तत्त्व को बचाकर नहीं रख पाती है और एक ही पक्ष बनी नज़र आती है । यह बात लगभग सभी जानते हैं कि भारत की लगभग 70% आबादी गाँव में रहती है, जो खेती और मजदूरी पर निर्भर है। इस देश की पत्रकारिता ने किसानों की समस्याओं को बहुत कम ही मुद्दा बनाया है । यदि वह ऐसा करें तो सरकार भी इनकी समस्याओं से अधिक रू-ब-रू हो पाएगी। यहाँ हिंदी पत्रकारिता की भूमिका इसलिए ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि हिंदी भाषा गाँव से जुड़ी है । कई बार किसानों और आम लोगों के मुद्दों को लेकर अँग्रेजी पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता से ज्यादा सजग रहती है । इसी तरह दलितों और आदिवासियों से सम्बंधित मुद्दों पर भी हिंदी पत्रकारिता अपने सामाजिक सरोकारों को पूरा नहीं करती है । आज भी हमारे समाज में दलितों और आदिवासियों के साथ अछूतों वाला व्यवहार किया जाता है । आज भी हमारे समाज के कुछ लोग इनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं । इनको समाज में वह सम्मान नहीं मिलता जिसके वे हकदार हैं । भारत के ऐसे कई राज्य हैं जहाँ लोग इनका छूआ पानी तक नहीं पीते हैं । इन सब बातों पर हमारी हिंदी पत्रकारिता कभी ध्यान भी नहीं देती है । लेकिन यदि किसी अभिनेता या बिजनेसमैन की शादी हो या उसके साथ कोई घटना घट गई हो, उसकी सूचना दिन भर समाचार-पत्रों के द्वारा मिलती रहती है। सवाल यह है कि पत्रकारिता एक बहुत बड़े समाज की भावनाओं की ओर से अपनी सामाजिक दायित्वों को क्यों नहीं निभाती ? हज़ारों की कगार में आदिवासी अपने हक के लिए लड़ते हैं लेकिन उनकी माँग से जुड़ी खबरें कभी आम लोगों के सामने प्रस्तुत नहीं की जाती है ।

जब हम दलित स्त्री की बात करते हैं तो सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता का दम्भ भरने वाली पत्रकारिता कहीं दूर खड़ी नज़र आती है । हिंदी पत्रकारिता ने दलित औरतों के साथ कभी भी सहानुभूति का व्यवहार नहीं किया है । वह या तो दलित औरतों को बलात्कार पीड़िता के रूप में पेश करता है या फिर कोई डायन के रूप में । इसके विपरीत अँग्रेज़ी पत्रकारिता ज्यादा गम्भीर दिखती है । सवाल यह है कि जब पत्रकारिता दलित स्त्रियों के साथ बलात्कार की खबर पर उन्हें ‘दलित महिला’ कह कर प्रस्तुत करती है तो फिर सवर्ण समाज की महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घटना होती है तब वही पत्रकारिता उन्हें ‘सवर्ण महिला’ के साथ बलात्कार क्यों नहीं लिखती है? जहाँ सवर्ण महिलाओं के साथ यौनिक हिंसा होने पर यह पत्रकारिता कैंडल मार्च से लेकर तमाम विरोध प्रदर्शन की खबरें दिखा कर सरकार पर दबाव डालती है, वहीं दलित महिलाओं के साथ शारीरिक हिंसा होने पर जब दलित संगठन और समाज सेवी विरोध प्रदर्शन कर के उनके लिए इंसाफ माँगते हैं तो उनकी माँग वहीं तक सीमित रहकर किसी अँधेरे कुँए में खो जाती है । जब मैरीकॉम और दीपिका ऑलम्पिक में पदक जीतती हैं तो वह ‘देश की बेटी’ कही जाती हैं, लेकिन जब इन्हीं दोनों के समाज की कोई महिला शोषण का शिकार होती हैं तो वह आदिवासी और दलित कही जाती हैं । जब अत्याचार की बात आती है तब यह महिलाएँ ‘देश की बेटी’ क्यों नहीं कही जातीं?

वास्तव में बात यह है कि आधुनिकता व वैश्वीकरण के इस दौर मे पत्र-पत्रिकाओं व नामी गिरामी न्यूज चैनलों को ग्रामीण परिवेश, दलित समाज से लाभ नहीं हो पाता और सरोकार भी नहीं है । इसीलिए वे धीरे-धीरे इससे दूर भाग रहे हैं और औद्योगीकरण के इस दौर में पत्रकारिता ने भी सामाजिक सरोकारों को भुलाते हुए उद्योग का रूप ले लिया है । गम्भीर से गम्भीर मुद्दे अंदर के पृष्ठों पर लिए जाते हैं तथा कई बार तो सिरे से गायब भी रहते हैं । समाचारों के रूप में कई समस्याएँ स्थान तो पा लेती हैं लेकिन उन पर गम्भीर विमर्श के लिए पृष्ठों की कमी हो जाती है । पत्रकारिता की तटस्थता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक है।

आज के इस दौर में पत्रकारिता कहाँ पर है और आम लोगों को उनकी समस्या का हल कौन देगा यह बताने वाली पत्रकारिता अपने आप से आज यह सवाल पूछ रही है कि मैं कौन हूँ ? आज देश आतंकवाद, नक्सलवाद जैसी गम्भीर समस्याओं से जूझ रहा है । इससे निपटने के लिए आम लोगों को क्या करना चाहिए ? सरकार की क्या भूमिका हो सकती है ? सहित ऐसे कई मुद्दों पर पत्रकारिता मौन रूप लिए हुए है । वहीं दूसरी ओर आतंकी गतिविधियों से लेकर नक्सली क्रूरता को लाइव दिखाने में भी यह पत्रकारिता पीछे नहीं है । यहाँ तक कि आज सर्वप्रथम किसी समाचार को दिखाने की होड़ में पत्रकारिता के समक्ष आतंकी व नक्सली हमला के तुरंत बाद ही हमला करने वाले कमाण्डर व अन्य आरोपियों के फॉन व ई-मेल तक आ जाते हैं । ध्यान देने वाली बात यह है कि बार-बार व प्रत्येक दिन इन समाचारों को दिखाने व छापने से फायदा किसका होता है ? आम जनता का, पुलिस का, नक्सली व आतंकी का या फिर पत्रकारिता का ? निश्चित रूप से इसका फायदा पत्रकारिता व उन देशद्रोहियों (आतंकी व नक्सली) को होता है, जिन्हें बिना किसी कारण से बढ़ावा मिलता है क्योंकि बार-बार उन्हें दिखाने से आम लोगों और बच्चों में उनके प्रति भय पैदा होता है और ये असामाजिक तत्त्व चाहते भी यही हैं । इसलिए आज जरूरी है कि पत्रकारिता और इसे चलाने वाले लोगों को यह तय करना होगा कि पत्रकारिता ने सामाजिक सरोकारों को दूर करने में कितनी कामयाबी हासिल की है, यह उन्हें स्वयं ही देखना व समझना होगा । ऐसा भी नहीं है कि पत्रकारिता ने सामाजिक सरोकारों को एकदम ही अलग कर दिया है । परंतु लगातार पत्रकारिता की भूमिका संदिग्ध-सी लगती है । कई विषयों पर जहाँ उन्हें न्याय दिलाने की आवश्यकता होती है एवं लोगों को पत्रकारिता से यह अपेक्षा होती है कि उसके द्वारा उनकी माँगों व समस्याओं पर विशेष ध्यान देते हुए समस्या का समाधान किया जाएगा । ऐसे कई मौकों पर पत्रकारिता की भूमिका से लोगों को काफी असहज-सा महसूस होता है ।

पत्रकारिता ने हमारे समाज को हर क्षेत्र में प्रभावित किया है । यदि वह समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए सत्य की राह पर है तो उस समाज और राष्ट्र का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता है । यदि दुर्भाग्यवश पत्रकारिता ने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को नजर अंदाज करते हुए असत्य की राह पकड़ ली तो समाज व राष्ट्र का नाश निश्चित है ।

अतः पत्रकारिता को एक बार फिर से ठीक उसी तरह निष्पक्ष होना पड़ेगा जिस तरह आज़ादी के पहले जनता के साथ देखा गया । यह तभी सम्भव हो सकेगा जब पत्रकारिता स्वयं में ही एक आत्ममंथन करे और एक आंदोलन के रूप में सामाजिक सरोकार स्थापित करे ।

मैंने अपने इस लेख Journalism and social concern |Hindi| पत्रकारिता एवं सामाजिक सरोकार में मूलत: पत्रकारिता से जुड़ी तमाम बातों को स्पष्ट करने की कोशिश की है । 

आपको मेरा लेख Journalism and social concern |Hindi| पत्रकारिता एवं सामाजिक सरोकार कैसा लगा कृपया कमेंट बॉक्स में लिखकर बताएँ । इसके साथ ही आप यदि कोई सुझाव देना चाहते हैं तो वह भी दे सकते हैं ।